Wednesday, August 5, 2009

उलझन


आज कल कहीं मन नही लगता , बस यूँ ही घूमता रहता है , यही सोचता रहता है की क्या सपने सच होते हैं , "मेरे सपने " । बचपन में देखे बिना किसी रोक टोक के सपने , वो उड़ने की ख्वाहिश , उछल कर आसमा को चूम लेने की ख्वाहिश , बादलों के बीच घर बनाने की तमन्ना , जब छोटे थे तो बड़े बनने का बड़ा मन करता था , बड़े होकर सपने जो पूरे करने थे , तब लगता था की सब चीज कितनी अच्छी है , सुंदर है , बिना बात के हँसना , रोना , गुस्सा होना , भाई , बहनों , दोस्तों से लडाई करना , फिर मनाना , फिर सब कुछ भुला के फिर से खेलना , वो बारिश , वो कागज़ की नाव, एक टॉफी ही दिल खुश कर देती थी , पहले खुशी ही जिन्दगी थी अब जिन्दगी में खुशी दूंदते फिरते हैं , सपने नॉन प्रैक्टिकल लगते हैं , उड़ने की कौन कहे चलने में डर लगता है , बड़े होकर भी अब बच्चा बनने का मन करता है .

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